श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 17: गंगा-अवतरण  »  श्लोक 24
 
 
श्लोक  5.17.24 
 
 
यन्निर्मितां कर्ह्यपि कर्मपर्वणींमायां जनोऽयं गुणसर्गमोहित: ।
न वेद निस्तारणयोगमञ्जसातस्मै नमस्ते विलयोदयात्मने ॥ २४ ॥
 
अनुवाद
 
  भगवान की माया हमें सभी जीवों को इस भौतिक संसार में बाँधती है। इसलिये, उनके अनुग्रह के बिना हम जैसे क्षुद्र प्राणी माया से मुक्त होने की विधि नहीं समझ सकते। मैं उन भगवान को सादर नमस्कार करता हूँ, जो इस संसार के निर्माण और विनाश के कारण हैं।
 
 
इस प्रकार श्रीमद् भागवतम के स्कन्ध पांच के अंतर्गत सत्रहवाँ अध्याय समाप्त होता है ।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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