श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 5: सृष्टि की प्रेरणा  »  अध्याय 14: भौतिक संसार भोग का एक विकट वन  »  श्लोक 45
 
 
श्लोक  5.14.45 
 
 
यज्ञाय धर्मपतये विधिनैपुणाययोगाय साङ्ख्यशिरसे प्रकृतीश्वराय ।
नारायणाय हरये नम इत्युदारंहास्यन्मृगत्वमपि य: समुदाजहार ॥ ४५ ॥
 
अनुवाद
 
  हालाँकि महाराज भरत मृग देह में थे, फिर भी उन्होंने पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को नहीं भुलाया; इसलिए जब वो मृग देह त्यागने वाले थे, तब उन्होंने ऊँची आवाज में इस प्रकार प्रार्थना की, “पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ही यज्ञ पुरुष हैं। वे अनुष्ठानों का फल देने वाले हैं। वे धर्म रक्षक, योगस्वरूप, सर्वज्ञानस्रोत (सांख्य के प्रतिपाद्य), सम्पूर्ण सृष्टि के नियामक तथा प्रत्येक जीवात्मा में स्थित परमात्मा हैं। वे सुंदर तथा आकर्षक हैं। मैं उन्हें नमस्कार करके यह देह त्याग रहा हूँ और आशा करता हूँ कि उनकी दिव्य सेवा में अहर्निश संलग्न रहूँगा।” यह कहते हुए महाराज भरत ने अपनी देह त्याग दी।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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