सिद्धा ऊचु:
अयं त्वत्कथामृष्टपीयूषनद्यां
मनोवारण: क्लेशदावाग्निदग्ध: ।
तृषार्तोऽवगाढो न सस्मार दावं
न निष्क्रामति ब्रह्मसम्पन्नवन्न: ॥ ३५ ॥
अनुवाद
सिद्धों ने स्तुति की: हे भगवन्, जंगल की आग से झुलसकर जब हाथी नदी में प्रवेश करता है, तो उसे सारी पीड़ा भुलाकर आनंद का अनुभव होता है। उसी तरह, हे प्रभु, हमारे मन भी आपकी दिव्य लीलाओं की अमृत-नदी में सराबोर होकर उस परम आनंद का अनुभव करते हैं, जो कि ब्रह्म में विलीन होने के सुख के समान है।