श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 7: दक्ष द्वारा यज्ञ सम्पन्न करना  »  श्लोक 33
 
 
श्लोक  4.7.33 
 
 
पत्‍न्य ऊचु:
यज्ञोऽयं तव यजनाय केन सृष्टो
विध्वस्त: पशुपतिनाद्य दक्षकोपात् ।
तं नस्त्वं शवशयनाभशान्तमेधं
यज्ञात्मन्नलिनरुचा द‍ृशा पुनीहि ॥ ३३ ॥
 
अनुवाद
 
  याज्ञिकों की पत्नियों ने कहा: हे भगवान्, ब्रह्मा के निर्देशानुसार वह यज्ञ सुचारू रूप से चल रहा था, किन्तु दुर्भाग्यवश दक्ष से क्रुद्ध होकर भगवान शिव ने सम्पूर्ण आयोजन को तार-तार कर दिया, और उनके क्रोध के कारण यज्ञ के लिए लाए गए पशु निर्जीव होकर पड़े हैं। फलस्वरूप यज्ञ की सभी तैयारियाँ व्यर्थ हो गई हैं। अब इस यज्ञस्थल की पवित्रता पुनः प्राप्त करने के लिए आपकी कमल के समान नेत्रों की चितवन आवश्यक है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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