श्रीमद् भागवतम » स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति » अध्याय 20: महाराज पृथु के यज्ञस्थल में भगवान् विष्णु का प्राकट्य » श्लोक 5 |
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| | श्लोक 4.20.5  | अत: कायमिमं विद्वानविद्याकामकर्मभि: ।
आरब्ध इति नैवास्मिन्प्रतिबुद्धोऽनुषज्जते ॥ ५ ॥ | | | अनुवाद | जो लोग जीवन की देहात्मबुद्धि की अवधारणा को भली-भाँति जानते हैं, वे यह जानते हैं कि यह शरीर अज्ञानता, इच्छाओं और भ्रम से उत्पन्न कर्मों से मिलकर बना है, वे इस शरीर के प्रति आसक्त नहीं होते हैं। | | जो लोग जीवन की देहात्मबुद्धि की अवधारणा को भली-भाँति जानते हैं, वे यह जानते हैं कि यह शरीर अज्ञानता, इच्छाओं और भ्रम से उत्पन्न कर्मों से मिलकर बना है, वे इस शरीर के प्रति आसक्त नहीं होते हैं। |
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