श्रीमद् भागवतम » स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति » अध्याय 20: महाराज पृथु के यज्ञस्थल में भगवान् विष्णु का प्राकट्य » श्लोक 32 |
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| | श्लोक 4.20.32  | मैत्रेय उवाच
इत्यादिराजेन नुत: स विश्वदृक्
तमाह राजन्मयि भक्तिरस्तु ते ।
दिष्ट्येदृशी धीर्मयि ते कृता यया
मायां मदीयां तरति स्म दुस्त्यजाम् ॥ ३२ ॥ | | | अनुवाद | मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा कि पृथु महाराज की प्रार्थना सुनकर ब्रह्माण्ड के साक्षी भगवान् ने राजा को सम्बोधित किया: हे राजन्, तुम्हारी मुझमें सदा भक्ति बनी रहे। तुम्हारे शुद्ध उद्देश्य से, जिसे तुमने बुद्धिमत्तापूर्वक प्रकट किया है, दुर्लंघ्य माया को पार किया जा सकता है। | | मैत्रेय ऋषि ने आगे कहा कि पृथु महाराज की प्रार्थना सुनकर ब्रह्माण्ड के साक्षी भगवान् ने राजा को सम्बोधित किया: हे राजन्, तुम्हारी मुझमें सदा भक्ति बनी रहे। तुम्हारे शुद्ध उद्देश्य से, जिसे तुमने बुद्धिमत्तापूर्वक प्रकट किया है, दुर्लंघ्य माया को पार किया जा सकता है। |
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