श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 20: महाराज पृथु के यज्ञस्थल में भगवान् विष्णु का प्राकट्य  »  श्लोक 28
 
 
श्लोक  4.20.28 
 
 
जगज्जनन्यां जगदीश वैशसं
स्यादेव यत्कर्मणि न: समीहितम् ।
करोषि फल्ग्वप्युरु दीनवत्सल:
स्व एव धिष्ण्येऽभिरतस्य किं तया ॥ २८ ॥
 
अनुवाद
 
  हे जगदीश्वर, लक्ष्मीजी विश्व की माता हैं, पर उनके प्रति सेवा में हस्तक्षेप करने और उसी पद पर कार्य करने से जिसके प्रति वे इतनी आसक्त हैं, वे मुझसे क्रुद्ध हो सकती हैं। फिर भी मुझे आशा है कि इस भ्रम के होते हुए भी आप मेरे पक्ष में रहेंगे, क्योंकि आप दीनवत्सल हैं और भक्त की तुच्छ सेवाओं को भी बहुत करके मानते हैं। अत: यदि वे रुष्ट भी हो जाएं तो आपको कोई हानि नहीं होगी, क्योंकि आप आत्मनिर्भर हैं और उनके बिना भी आपका काम चल सकता है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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