श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 20: महाराज पृथु के यज्ञस्थल में भगवान् विष्णु का प्राकट्य  »  श्लोक 27
 
 
श्लोक  4.20.27 
 
 
अथाभजे त्वाखिलपूरुषोत्तमं
गुणालयं पद्मकरेव लालस: ।
अप्यावयोरेकपतिस्पृधो: कलि-
र्न स्यात्कृतत्वच्चरणैकतानयो: ॥ २७ ॥
 
अनुवाद
 
  अब मैं भगवान के चरण कमल की सेवा में लीन रहना चाहता हूँ और कमल धारिणी लक्ष्मी जी की तरह उनकी सेवा करना चाहता हूँ, क्योंकि भगवान सभी श्रेष्ठ गुणों के भंडार हैं| मुझे भय है कि लक्ष्मी जी और मेरे बीच झगड़ा हो जाएगा क्यूंकि हम दोनों ही उनकी सेवा में समान रूप से लगे रहेंगे|
 
 
 
  Connect Form
  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
  © copyright 2024 vedamrit. All Rights Reserved.