श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 20: महाराज पृथु के यज्ञस्थल में भगवान् विष्णु का प्राकट्य  »  श्लोक 25
 
 
श्लोक  4.20.25 
 
 
स उत्तमश्लोक महन्मुखच्युतो
भवत्पदाम्भोजसुधा कणानिल: ।
स्मृतिं पुनर्विस्मृततत्त्ववर्त्मनां
कुयोगिनां नो वितरत्यलं वरै: ॥ २५ ॥
 
अनुवाद
 
  हे प्रभु, महान व्यक्तियों द्वारा बोले गए उत्तम पदों से आपका यश फैलता है। कमल-चरणों की ऐसी प्रशंसा केसर कणों के समान होती है। जब महान भक्तों के मुँह से निकले दिव्य स्वर, आपके कमल-चरणों की सुगंध ले जाते हैं तो भूले हुए जीव धीरे-धीरे अपने शाश्वत संबंधों को याद कर लेते हैं। इस प्रकार धीरे-धीरे भक्त जीवन का वास्तविक मूल्य समझने लगते हैं। मेरे प्रिय प्रभु, इसलिए मुझे किसी अन्य वरदान की आवश्यकता नहीं है, बस आपके शुद्ध भक्त के मुख से आपको सुनने का अवसर दें।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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