श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 20: महाराज पृथु के यज्ञस्थल में भगवान् विष्णु का प्राकट्य  »  श्लोक 22
 
 
श्लोक  4.20.22 
अथावमृज्याश्रुकला विलोकयन्-
नतृप्तद‍ृग्गोचरमाह पूरुषम् ।
पदा स्पृशन्तं क्षितिमंस उन्नते
विन्यस्तहस्ताग्रमुरङ्गविद्विष: ॥ २२ ॥
 
 
अनुवाद
भगवान अपने चरण-कमलों से पृथ्वी को छूते हुए खड़े थे और उनके हाथ का अगला भाग सर्पों के शत्रु गरुड़ के ऊँचे कंधे पर था। महाराज पृथु अपनी आँखों से आँसू पोंछते हुए भगवान को देखने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन ऐसा लग रहा था कि राजा उन्हें देखकर संतुष्ट नहीं थे। इस प्रकार राजा ने निम्नलिखित प्रार्थनाएँ कीं।
 
भगवान अपने चरण-कमलों से पृथ्वी को छूते हुए खड़े थे और उनके हाथ का अगला भाग सर्पों के शत्रु गरुड़ के ऊँचे कंधे पर था। महाराज पृथु अपनी आँखों से आँसू पोंछते हुए भगवान को देखने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन ऐसा लग रहा था कि राजा उन्हें देखकर संतुष्ट नहीं थे। इस प्रकार राजा ने निम्नलिखित प्रार्थनाएँ कीं।
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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