श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 20: महाराज पृथु के यज्ञस्थल में भगवान् विष्णु का प्राकट्य  »  श्लोक 18
 
 
श्लोक  4.20.18 
स्पृशन्तं पादयो: प्रेम्णा व्रीडितं स्वेन कर्मणा ।
शतक्रतुं परिष्वज्य विद्वेषं विससर्ज ह ॥ १८ ॥
 
 
अनुवाद
राजा इन्द्र जो वहाँ उपस्थित थे, अपने कार्यों पर अत्यन्त शर्मिंदा हुए और राजा पृथु के चरणों में गिर पड़े ताकि उनके चरण-कमलों को स्पर्श कर सकें। लेकिन पृथु महाराज ने तुरंत बहुत ही खुशी के साथ उन्हें गले लगा लिया और यज्ञ के लिए नियत घोड़े को चुराने के कारण उनसे सारी ईर्ष्या त्याग दी।
 
राजा इन्द्र जो वहाँ उपस्थित थे, अपने कार्यों पर अत्यन्त शर्मिंदा हुए और राजा पृथु के चरणों में गिर पड़े ताकि उनके चरण-कमलों को स्पर्श कर सकें। लेकिन पृथु महाराज ने तुरंत बहुत ही खुशी के साथ उन्हें गले लगा लिया और यज्ञ के लिए नियत घोड़े को चुराने के कारण उनसे सारी ईर्ष्या त्याग दी।
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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