आत्मानं ब्रह्म निर्वाणं प्रत्यस्तमितविग्रहम् ।
अवबोधरसैकात्म्यमानन्दमनुसन्ततम् ॥ ८ ॥
अव्यवच्छिन्नयोगाग्निदग्धकर्ममलाशय: ।
स्वरूपमवरुन्धानो नात्मनोऽन्यं तदैक्षत ॥ ९ ॥
अनुवाद
उसने परब्रह्म के विषय में अपने ज्ञान के विस्तार द्वारा पहले ही देह-बंधन से निवृत्ति प्राप्त कर ली थी। इस निवृत्ति को निर्वाण कहते हैं। वह दिव्य आनंद की स्थिति को प्राप्त था और उसी आनंदमय स्थिति में रहता रहा, जो अधिकाधिक बढ़ती जा रही थी। यह निरंतर भक्ति योग के कारण ही संभव था जिसकी तुलना अग्नि से की गई है, जो समस्त मलिन भौतिक वस्तुओं को भस्म कर देती है। वह सदैव आत्म-साक्षात्कार की अपनी स्वाभाविक स्थिति में स्थित रहता था और भगवान् के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देख सकता था और वह भक्ति योग में तन्मय रहता था।