श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 5: मैत्रेय से विदुर की वार्ता  »  श्लोक 40
 
 
श्लोक  3.5.40 
 
 
धातर्यदस्मिन् भव ईश जीवा-
स्तापत्रयेणाभिहता न शर्म ।
आत्मन्लभन्ते भगवंस्तवाङ्‌घ्रि-
च्छायां सविद्यामत आश्रयेम ॥ ४० ॥
 
अनुवाद
 
  हे पिता, हे हमारे प्रभु, हे भगवान्, इस भौतिक संसार के जीवों को कभी सुख प्राप्त नहीं हो सकता है। वे तीन प्रकार के कष्टों से अभिभूत रहते हैं। इसलिए, वे आपके चरणकमलों की छाया में शरण लेते हैं जो ज्ञान से परिपूर्ण हैं। हम भी उन्हीं चरणकमलों की शरण लेते हैं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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