अत एव शनैश्चित्तं प्रसक्तमसतां पथि ।
भक्तियोगेन तीव्रेण विरक्त्या च नयेद्वशम् ॥ ५ ॥
अनुवाद
प्रत्येक बद्धजीव का कर्तव्य है कि वह भौतिक सुखों की लिप्सा में लिप्त अपनी अपवित्र चेतना को पूरे समर्पण और वैराग्य के साथ गहरी भक्ति में लगाए। इस तरह उसका मन और चेतना पूरी तरह से नियंत्रण में आ जाएँगे।