न युज्यमानया भक्त्या भगवत्यखिलात्मनि ।
सदृशोऽस्ति शिव: पन्था योगिनां ब्रह्मसिद्धये ॥ १९ ॥
अनुवाद
जब तक कोई भी योगी श्रीभगवान की भक्ति में प्रवृत्त नहीं हो जाता, तब तक आत्मसाक्षात्कार में पूर्णता प्राप्त नहीं की जा सकती, क्योंकि भक्ति ही एकमात्र शुभ मार्ग है।