न वै जातु मृषैव स्यात्प्रजाध्यक्ष मदर्हणम् ।
भवद्विधेष्वतितरां मयि संगृभितात्मनाम् ॥ २४ ॥
अनुवाद
भगवान ने आगे कहा—हे ऋषि, हे जीवधारियों के स्वामी, जो लोग भक्तिभावपूर्वक मेरी पूजा करते हुए मेरी सेवा करते हैं, ख़ास तौर पर तुम जैसे लोग जिन्होंने अपना सर्वस्व मुझे समर्पित कर दिया है, उन्हें निराश होना तो दूर की बात है, उन्हें निराशा का नाम और निशान तक नहीं पता होता।