कदाचिद् ध्यायत: स्रष्टुर्वेदा आसंश्चतुर्मुखात् ।
कथं स्रक्ष्याम्यहं लोकान् समवेतान् यथा पुरा ॥ ३४ ॥
अनुवाद
एक बार की बात है, जब ब्रह्मा जी ये सोच रहे थे कि बीते हुए कल्प की तरह लोकों की सृष्टि कैसे की जाए तो सभी प्रकार के ज्ञान से भरे हुए चारों वेद उनके चारों मुखों से प्रकट हो गए।