श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 12: पतनोन्मुख युग  »  अध्याय 9: मार्कण्डेय ऋषि को भगवान् की मायाशक्ति के दर्शन  »  श्लोक 31-32
 
 
श्लोक  12.9.31-32 
 
 
तस्मिन् पृथिव्या: ककुदि प्ररूढं
वटं च तत्पर्णपुटे शयानम् ।
तोकं च तत्प्रेमसुधास्मितेन
निरीक्षितोऽपाङ्गनिरीक्षणेन ॥ ३१ ॥
अथ तं बालकं वीक्ष्य नेत्राभ्यां धिष्ठितं हृदि ।
अभ्ययादतिसङ्‌‌‌क्लिष्ट: परिष्वक्तुमधोक्षजम् ॥ ३२ ॥
 
अनुवाद
 
  उस फैले हुए विशाल सागर में उन्होंने पुनः छोटे से टापू पर बरगद का वृक्ष उगा हुआ और पत्ते के भीतर लेटे हुए शिशु को देखा। शिशु प्रेम के रस से परिपूर्ण मुस्कराहट के साथ अपनी आँखों की कोरों से उन्हें देख रहा था। मार्कण्डेय उस शिशु को अपनी आँखों से अपने हृदय में समा ले गए। अत्यंत विचलित होकर ऋषि ने भगवान के व्यक्तित्व को आलिंगन करने की ओर दौड़ लगाई।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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