श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 12: पतनोन्मुख युग  »  अध्याय 8: मार्कण्डेय द्वारा नर-नारायण ऋषि की स्तुति  »  श्लोक 26-27
 
 
श्लोक  12.8.26-27 
 
 
क्रीडन्त्या: पुञ्जिकस्थल्या: कन्दुकै: स्तनगौरवात् ।
भृशमुद्विग्नमध्याया: केशविस्रंसितस्रज: ॥ २६ ॥
इतस्ततोभ्रमद्‌‌दृष्टेश्चलन्त्या अनुकन्दुकम् ।
वायुर्जहार तद्वास: सूक्ष्मं त्रुटितमेखलम् ॥ २७ ॥
 
अनुवाद
 
  पुञ्जिकस्थली नाम की अप्सरा अनेक गेंदों से खेल दिखाने लगी। स्तनों के भारीपन से उसकी कमर झुक रही थी और जूड़े में गुँथे फूल बिखर रहे थे। वह इधर-उधर नजर घुमाते हुए गेंदों के पीछे-पीछे दौड़ती तो उसके शरीर पर लपेटा हल्का कपड़ा ढीला हो गया और अचानक हवा ने उसके कपड़े उड़ा दिए।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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