तदाश्रमपदं पुण्यं पुण्यद्रुमलताञ्चितम् ।
पुण्यद्विजकुलाकीर्णं पुण्यामलजलाशयम् ॥ १८ ॥
मत्तभ्रमरसङ्गीतं मत्तकोकिलकूजितम् ।
मत्तबर्हिनटाटोपं मत्तद्विजकुलाकुलम् ॥ १९ ॥
वायु: प्रविष्ट आदाय हिमनिर्झरशीकरान् ।
सुमनोभि: परिष्वक्तो ववावुत्तम्भयन् स्मरम् ॥ २० ॥
अनुवाद
पवित्र वृक्षों के झुरमुट मार्कण्डेय ऋषि के पवित्र आश्रम को सजाते थे। कई संत ब्राह्मण यहाँ रहते थे और प्रचुर मात्रा में शुद्ध, पवित्र तालाबों का आनंद लेते थे। आश्रम उन्मत्त भौरों की गुनगुनाहट और उत्साहित कोयलों की बोली से गूँज उठता था। प्रफुल्लित मोर इधर-उधर नाचते थे। निस्संदेह, उन्मत्त पक्षियों के कई परिवार उस कुटिया में झुंड के झुंड रहते थे। इंद्र द्वारा भेजी गई वसंत की हवा पास के झरनों से शीतल बूँदों का झरना लेकर वहाँ प्रवेश करती थी। वह हवा वन के फूलों के आलिंगन से सुगंधित थी। वह हवा कुटिया में प्रवेश करती थी और कामदेव की कामेच्छा को जगाना शुरू कर देती थी।