न यत्र दम्भीत्यभया विराजिता
मायात्मवादेऽसकृदात्मवादिभि: ।
न यद्विवादो विविधस्तदाश्रयो
मनश्च सङ्कल्पविकल्पवृत्ति यत् ॥ ३० ॥
न यत्र सृज्यं सृजतोभयो: परं
श्रेयश्च जीवस्त्रिभिरन्वितस्त्वहम् ।
तदेतदुत्सादितबाध्यबाधकं
निषिध्य चोर्मीन् विरमेत तन्मुनि: ॥ ३१ ॥
अनुवाद
किन्तु एक परम सत्य होता है, जिसमें माया यह सोचते हुए कि, “मैं इस व्यक्ति को वश में कर सकती हूँ क्योंकि यह कपटी है” निर्भय होकर अपना प्रभुत्व नहीं दिखा सकती। सर्वोच्च सत्य में मायामय तर्क-वितर्क के दर्शन नहीं होते। प्रत्युत उसमें अध्यात्म विद्या के असली जिज्ञासु निरन्तर प्रमाणित आध्यात्मिक शोध में लगे रहते हैं। उस परम सत्य में भौतिक मन की अभिव्यक्ति नहीं होती, जो कभी निर्णय तो कभी संशय के रूप में कार्य करता है। सृजित वस्तुएँ, उनके सूक्ष्म कारण और उनके उपयोग से प्राप्त आनन्द के लक्ष्य वहाँ विद्यमान नहीं रहते। यही नहीं, उस परम सत्य में मिथ्या अहंकार तथा तीन गुणों से आच्छादित कोई बद्ध आत्मा नहीं होता। वह सत्य प्रत्येक सीमित अथवा असीमित वस्तु को अपने से अलग करता है। इसलिए जो बुद्धिमान है उसे चाहिए कि भौतिक जीवन की तरंगों को रोक कर परम सत्य के भीतर आनन्द लूटे।