पित्रो: किं स्वं नु भार्याया: स्वामिनोऽग्ने: श्वगृध्रयो: ।
किमात्मन: किं सुहृदामिति यो नावसीयते ॥ १९ ॥
तस्मिन् कलेवरेऽमेध्ये तुच्छनिष्ठे विषज्जते ।
अहो सुभद्रं सुनसं सुस्मितं च मुखं स्त्रिय: ॥ २० ॥
अनुवाद
शरीर वास्तव में किसकी संपत्ति है, यह कोई कभी निश्चित नहीं कर सकता। क्या यह उन माता-पिता की है जिसने उसे जन्म दिया है, या इसे सुख देने वाली पत्नी की है, या इसके मालिक की है, जो शरीर को हुक्म देता रहता है? या यह चिता की अग्नि की या उन कुत्तों और सियारों की है, जो अंततः इसका भक्षण करेंगे? क्या यह उस आत्मा की संपत्ति है, जो इसके सुख-दुख में साथ देती है या यह शरीर उन घनिष्ठ मित्रों का है जो इसे प्रोत्साहित करते हैं और इसकी सहायता करते हैं? यद्यपि मनुष्य कभी भी शरीर के स्वामी को निश्चित नहीं कर पाता, फिर भी वह इससे अनुरक्त रहता है। यह भौतिक शरीर उस दूषित पदार्थ के समान है जो निम्न स्थान की ओर बढ़ रहा है, फिर भी जब मनुष्य किसी स्त्री के मुख की ओर टकटकी लगाता है, तो सोचता है, "कितनी सुंदर है यह स्त्री? कैसी सुघड़ नाक है इसकी और जरा इसकी सुंदर हँसी को तो देखो।"