श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 11: सामान्य इतिहास  »  अध्याय 22: भौतिक सृष्टि के तत्त्वों की गणना  »  श्लोक 45
 
 
श्लोक  11.22.45 
 
 
सोऽयं दीपोऽर्चिषां यद्वत्स्रोतसां तदिदं जलम् ।
सोऽयं पुमानिति नृणां मृषा गीर्धीर्मृषायुषाम् ॥ ४५ ॥
 
अनुवाद
 
  यद्यपि दीये का प्रकाश प्रकाश की असंख्य किरणों से मिलकर बना होता है और निरंतर बनता-मिटता रहता है, किन्तु जो व्यक्ति भ्रमवश मोहग्रस्त है और क्षण भर के लिए प्रकाश को देखता है, वह झूठ बोलता है और कहता है, "यह दीये का वही प्रकाश है।" यह स्थिति ठीक वैसी ही है, जैसे नदी के बहते जल को देखकर कोई कहे, "यह नदी का वही जल है।" इसी तरह, यद्यपि मनुष्य का भौतिक शरीर निरंतर परिवर्तित हो रहा होता है, किन्तु जो लोग अपने जीवन को व्यर्थ गँवा रहे होते हैं, वे गलत तरीके से सोचते हैं और कहते हैं कि शरीर का प्रत्येक विशेष चरण व्यक्ति की वास्तविक पहचान है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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