श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 11: सामान्य इतिहास  »  अध्याय 20: शुद्ध भक्ति ज्ञान एवं वैराग्य से आगे निकल जाती है  »  श्लोक 27-28
 
 
श्लोक  11.20.27-28 
 
 
जातश्रद्धो मत्कथासु निर्विण्ण: सर्वकर्मसु ।
वेद दु:खात्मकान् कामान् परित्यागेऽप्यनीश्वर: ॥ २७ ॥
ततो भजेत मां प्रीत: श्रद्धालुर्दृढनिश्चय: ।
जुषमाणश्च तान् कामान् दु:खोदर्कांश्च गर्हयन् ॥ २८ ॥
 
अनुवाद
 
  मेरी कीर्ति की कथाओं पर विश्वास जगाकर, समस्त भौतिक गतिविधियों से ऊबकर, यह जानते हुए कि इंद्रियों का सुख दुखदायी होता है, पर इन्द्रिय सुखों का त्याग करने में असमर्थ, मेरे भक्त को चाहिए कि वो सुखी रहे और मेरे प्रति अटूट श्रद्धा तथा विश्वास के साथ मेरी आराधना करे। कभी-कभी इंद्रिय सुखों में लिप्त होने पर भी, मेरा भक्त जानता है कि सभी प्रकार के इन्द्रिय सुखों का परिणाम दुख है और वो ऐसे कार्यों के लिए सच्चे मन से पश्चाताप करता है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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