श्रीशुक उवाच
एवं ब्रुवाणे वैकुण्ठे भृगुस्तन्मन्द्रया गिरा ।
निर्वृतस्तर्पितस्तूष्णीं भक्त्युत्कण्ठोऽश्रुलोचन: ॥ १२ ॥
अनुवाद
शुकदेव गोस्वामी ने कहा: भगवान वैकुंठ के द्वारा कहे गये पवित्र शब्दों को सुनकर भृगु जी प्रसन्न एवं सन्तुष्ट हो उठे। भक्तिमय आनंद से अभिभूत होकर वे मौन हो गए और उनकी आंखें आंसुओं से भर आईं।