तमाह चाङ्गालमलं वृणीष्व मे
यथाभिकामं वितरामि ते वरम् ।
प्रीयेय तोयेन नृणां प्रपद्यता-
महो त्वयात्मा भृशमर्द्यते वृथा ॥ २० ॥
अनुवाद
शिवजी ने उससे कहा: हे मित्र, शांत हो जाओ, शांत हो जाओ, जो भी चाहो मुझसे मांगो। मैं तुम्हें वही वर दूंगा। अफसोस! तुमने व्यर्थ ही अपने शरीर को इतना कष्ट पहुंचाया, क्योंकि जो लोग शरण लेने के लिए मेरे पास आते हैं, केवल जल चढ़ाने से ही मैं प्रसन्न हो जाता हूं।