त्वदवगमी न वेत्ति भवदुत्थशुभाशुभयो-
र्गुणविगुणान्वयांस्तर्हि देहभृतां च गिर: ।
अनुयुगमन्वहं सगुण गीतपरम्परया
श्रवणभृतो यतस्त्वमपवर्गगतिर्मनुजै: ॥ ४० ॥
अनुवाद
जब कोई व्यक्ति आपका साक्षात्कार कर लेता है, तब उसे अपने पुराने अच्छे और बुरे कर्मों से मिलने वाले अच्छे और बुरे भाग्य की चिंता नहीं रहती, क्योंकि आप ही इन अच्छे और बुरे भाग्य को नियंत्रित करते हैं। ऐसा साक्षात्कारी भक्त इस बात की भी परवाह नहीं करता कि साधारण प्राणी उसके बारे में क्या कहते हैं। वह हर रोज अपने कानों को आपके यश से भरता रहता है, जो हर युग में मनु के वंशजों की श्रृंखला द्वारा गाए जाते हैं। इस तरह आप ही उसका परम मोक्ष बन जाते हैं।