श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 87: साक्षात् वेदों द्वारा स्तुति  »  श्लोक 35
 
 
श्लोक  10.87.35 
 
 
भुवि पुरुपुण्यतीर्थसदनान्यृषयो विमदा-
स्त उत भवत्पदाम्बुजहृदोऽघभिदङ्‍‍घ्रिजला: ।
दधति सकृन्मनस्त्वयि य आत्मनि नित्यसुखे
न पुनरुपासते पुरुषसारहरावसथान् ॥ ३५ ॥
 
अनुवाद
 
  ऋषि लोग अहंकार से रहित होकर पवित्र तीर्थस्थानों और भगवान के लीला स्थलों का भ्रमण करके इस पृथ्वी पर निवास करते हैं। क्योंकि ऐसे भक्त आपके चरणकमलों को अपने हृदयों में संजोकर रखते हैं, अतः उनके चरणों को धोने वाला जल सभी पापों को नष्ट कर देता है। जो कोई भी एक बार भी अपने मन को आपकी ओर मोड़ता है, वह फिर कभी पारिवारिक जीवन में नहीं लिप्त होता, जो केवल मनुष्य के अच्छे गुणों को नष्ट करता है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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