दृतय इव श्वसन्त्यसुभृतो यदि तेऽनुविधा
महदहमादयोऽण्डमसृजन् यदनुग्रहत: ।
पुरुषविधोऽन्वयोऽत्र चरमोऽन्नमयादिषु य:
सदसत: परं त्वमथ यदेष्ववशेषमृतम् ॥ १७ ॥
अनुवाद
यदि वे आपके अनन्य भक्त बन जाते हैं, तभी वे सचमुच जीवित होते हैं, अन्यथा उनकी साँसें धौंकनी की तरह हैं। आपकी कृपा से ही महत्-तत्त्व और मिथ्या अहंकार से आरंभ होते हुए तत्वों ने इस ब्रह्मांड रूपी अंडे का निर्माण किया। अन्नमय आदि सभी स्वरूपों में आप ही अंतिम हैं, जो जीव के साथ भौतिक आवरणों में प्रवेश करके उसके जैसा ही रूप धारण कर लेते हैं। स्थूल तथा सूक्ष्म भौतिक स्वरूपों से भिन्न, आप उन सभी की अंतर्निहित वास्तविकता हैं।