श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 87: साक्षात् वेदों द्वारा स्तुति  »  श्लोक 15
 
 
श्लोक  10.87.15 
 
 
बृहदुपलब्धमेतदवयन्त्यवशेषतया
यत उदयास्तमयौ विकृतेर्मृदि वाविकृतात् ।
अत ऋषयो दधुस्त्वयि मनोवचनाचरितं
कथमयथा भवन्ति भुवि दत्तपदानि नृणाम् ॥ १५ ॥
 
अनुवाद
 
  यह दृश्य जगत ब्रह्म के साथ पहचाना जाता है, क्योंकि परम ब्रह्म ही समस्त अस्तित्व का अनंत आधार है। जब कि सारी बनाई हुई चीजें ब्रह्म से ही उत्पन्न हुई हैं और अंत में उसी में लीन हो जाती हैं, तब भी ब्रह्म अपरिवर्तित रहता है। उसी प्रकार जैसे कि मिट्टी जिससे अनेक वस्तुएँ बनाई जाती हैं और वे वस्तुएँ फिर उसी में लीन हो जाती हैं, वह (मिट्टी) अपरिवर्तित रहती है। इसलिए सभी वैदिक ऋषि अपने विचारों, अपने शब्दों और अपने कार्यों को आप ही को समर्पित करते हैं। भला ऐसा कैसे हो सकता है कि जिस पृथ्वी पर मनुष्य रहते हैं, उसे उनके पैर स्पर्श न कर सकें?
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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