तुल्यश्रुततप:शीलास्तुल्यस्वीयारिमध्यमा: ।
अपि चक्रु: प्रवचनमेकं शुश्रूषवोऽपरे ॥ ११ ॥
अनुवाद
यद्यपि ये सभी ऋषि वेदाध्ययन एवं तपस्या में समान रूप से पारंगत थे और मित्रों, शत्रुओं और तटस्थों को एक समान मानते थे, फिर भी वे एक को वक्ता मानते हैं और शेष लोग उत्सुक श्रोता बन जाते हैं।