श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 81: भगवान् द्वारा सुदामा ब्राह्मण को वरदान  »  श्लोक 21-23
 
 
श्लोक  10.81.21-23 
 
 
इति तच्चिन्तयन्नन्त: प्राप्तो निजगृहान्तिकम् ।
सूर्यानलेन्दुसङ्काशैर्विमानै: सर्वतो वृतम् ॥ २१ ॥
विचित्रोपवनोद्यानै: कूजद्‌द्विजकुलाकुलै: ।
प्रोत्फुल्ल‍कमुदाम्भोजकह्लारोत्पलवारिभि: ॥ २२ ॥
जुष्टं स्वलङ्कृतै: पुम्भि: स्‍त्रीभिश्च हरिणाक्षिभि: ।
किमिदं कस्य वा स्थानं कथं तदिदमित्यभूत् ॥ २३ ॥
 
अनुवाद
 
  [शुकदेव गोस्वामी ने कहा]: इधर-उधर अपने आप सोचते-समझते सुदामा आख़िर उसी जगह पहुँचा जहाँ कभी उसका घर हुआ करता था। मगर अब उस जगह के चारों ओर ऊँचे-ऊँचे दिव्य महल थे जो सूरज, आग और चाँद के भी मिलकर बराबरी कर रहे थे। वहाँ आलीशान आँगन और बगीचे थे, जिनमें चहचहाते पक्षियों के झुंड भरे थे और जिनकी ख़ूबसूरती को बढ़ाते थे ऐसे तालाब जिसमें कमल, नीलकमल, कह्लार और उत्पल खिला हुआ था। सुन्दर कपड़े पहने पुरुष और हरिण जैसी आँखों वाली स्त्रियाँ सेवा के लिए खड़ी थीं। सुदामा मन-ही-मन में हैरान था, "यह सब क्या है? ये किसकी संपत्ति है? और ये सब कैसे हुआ?"
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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