निन्दां भगवत: शृण्वंस्तत्परस्य जनस्य वा ।
ततो नापैति य: सोऽपि यात्यध: सुकृताच्च्युत: ॥ ४० ॥
अनुवाद
जिस स्थान पर भगवान या उनके श्रद्धावान भक्त की निंदा होती हो, यदि कोई व्यक्ति तुरंत उस स्थान को छोड़कर नहीं जाता है, तो निश्चित रूप से वह अपने पुण्यों के फल से वंचित होकर पतन को प्राप्त हो जाएगा।