श्रीशुक उवाच
नरकं निहतं श्रुत्वा तथोद्वाहं च योषिताम् ।
कृष्णेनैकेन बह्वीनां तद् दिदृक्षु: स्म नारद: ॥ १ ॥
चित्रं बतैतदेकेन वपुषा युगपत्पृथक् ।
गृहेषु द्वयष्टसाहस्रं स्त्रिय एक उदावहत् ॥ २ ॥
इत्युत्सुको द्वारवतीं देवर्षिर्द्रष्टुमागमत् ।
पुष्पितोपवनारामद्विजालिकुलनादिताम् ॥ ३ ॥
उत्फुल्लेन्दीवराम्भोजकह्लारकुमुदोत्पलै: ।
छुरितेषु सर:सूच्चै: कूजितां हंससारसै: ॥ ४ ॥
प्रासादलक्षैर्नवभिर्जुष्टां स्फाटिकराजतै: ।
महामरकतप्रख्यै: स्वर्णरत्नपरिच्छदै: ॥ ५ ॥
विभक्तरथ्यापथचत्वरापणै:
शालासभाभी रुचिरां सुरालयै: ।
संसिक्तमार्गाङ्गनवीथिदेहलीं
पतत्पताकध्वजवारितातपाम् ॥ ६ ॥
अनुवाद
शुकदेव गोस्वामी ने कहा: जब नारदमुनि को यह पता चला कि भगवान कृष्ण ने नरकासुर का वध कर दिया है और अकेले ही अनेक कन्याओं से विवाह कर लिया है, तो नारदमुनि की इच्छा हुई कि वे भगवान को इस स्थिति में देखें। उन्होंने सोचा, "यह अत्यंत विचित्र है कि एक ही शरीर में भगवान ने सोलह हजार स्त्रियों से एक साथ विवाह कर लिया और वह भी अलग-अलग महलों में।" इस प्रकार देवर्षि उत्सुकतापूर्वक द्वारका पहुँचे। यह नगर बगीचों और उद्यानों से युक्त था जिसके आसपास पक्षियों और भौंरों की आवाज गूँज रही थी। इसके सरोवर खिले हुए इंदीवर, अंबुज, कलहारा, कुमुद और उत्पल से भरे हुए थे और हंसों और सारसों की बोलियों से गुंजायमान थे। द्वारका नौ लाख राजमहलों होने पर गर्व करता था। ये सभी महल स्फटिक और चाँदी के बने थे और विशाल पन्ना रत्नों से जगमगा रहे थे। इन महलों के अंदर सामान सोने और रत्नों से सजे हुए थे। यातायात के लिए अच्छी तरह से निर्मित गलियाँ, सड़कें, चौराहे और बाज़ार थे और कई सभाभवन और देवमंदिर इस मनमोहक शहर की शोभा बढ़ा रहे थे। सड़कें, आँगन, व्यावसायिक मार्ग और घरों के आँगन सभी पानी से सराबोर थे और झंडों से लहराते झंडों से सूर्य की गर्मी से छाया प्राप्त कर रहे थे।