तस्य काशीपतिर्मित्रं पार्ष्णिग्राहोऽन्वयान्नृप ।
अक्षौहिणीभिस्तिसृभिरपश्यत् पौण्ड्रकं हरि: ॥ १२ ॥
शङ्खार्यसिगदाशार्ङ्गश्रीवत्साद्युपलक्षितम् ।
बिभ्राणं कौस्तुभमणिं वनमालाविभूषितम् ॥ १३ ॥
कौशेयवाससी पीते वसानं गरुडध्वजम् ।
अमूल्यमौल्याभरणं स्फुरन्मकरकुण्डलम् ॥ १४ ॥
अनुवाद
हे राजन्, पौण्ड्रक का मित्र काशीराज उसके पीछे-पीछे गया और वह तीन अक्षौहिणी सेना समेत पीछे के रक्षकों की अगुवाई कर रहा था। भगवान् कृष्ण ने देखा कि पौण्ड्रक भगवान् के ही प्रतीक यथा शंख, चक्र, तलवार तथा गदा और दिखावटी शार्ङ्ग धनुष तथा श्रीवत्स चिन्ह भी धारण किये हुए थे। वह नकली कौस्तुभ मणि भी पहने था। वह जंगली फूलों की माला से सुशोभित था और ऊपर और नीचे उत्तम पीले रेशमी वस्त्र पहने हुए था। उसके झंडे में गरुड़ का चिन्ह था और वह मूल्यवान मुकुट तथा चमचमाते मकराकृति वाले कुंडल पहने हुए था।