श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 65: बलराम का वृन्दावन जाना  »  श्लोक 4-6
 
 
श्लोक  10.65.4-6 
 
 
गोपवृद्धांश्च विधिवद् यविष्ठैरभिवन्दित: ।
यथावयो यथासख्यं यथासम्बन्धमात्मन: ॥ ४ ॥
समुपेत्याथ गोपालान् हास्यहस्तग्रहादिभि: ।
विश्रान्तं सुखमासीनं पप्रच्छु: पर्युपागता: ॥ ५ ॥
पृष्टाश्चानामयं स्वेषु प्रेमगद्गदया गिरा ।
कृष्णे कमलपत्राक्षे सन्न्यस्ताखिलराधस: ॥ ६ ॥
 
अनुवाद
 
  तब बलराम जी ने अपने से बड़े ग्वालों को समुचित सम्मान दिया और जो छोटे थे उन्होंने उनका सादर सत्कार किया। वे आयु, मैत्री की कोटि तथा पारिवारिक संबन्ध के अनुसार प्रत्येक से हँसकर व हाथ मिलाकर स्वयं मिले। तत्पश्चात विश्राम कर लेने के बाद उन्होंने सुखद आसन ग्रहण किया और सारे लोग उनके चारों ओर एकत्र हो गये। उनके प्रति प्रेम से रुद्ध वाणी से उन ग्वालों ने, जिन्होंने कमल-नेत्र कृष्ण को सर्वस्व अर्पित कर दिया था, अपने (द्वारका के) प्रियजनों के स्वास्थ्य के विषय में पूछा। बदले में बलराम जी ने ग्वालों की कुशल-मंगल के विषय में पूछा।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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