स्वलङ्कृतेभ्यो गुणशीलवद्भ्य:
सीदत्कुटुम्बेभ्य ऋतव्रतेभ्य: ।
तप:श्रुतब्रह्मवदान्यसद्भ्य:
प्रादां युवभ्यो द्विजपुङ्गवेभ्य: ॥ १४ ॥
गोभूहिरण्यायतनाश्वहस्तिन:
कन्या: सदासीस्तिलरूप्यशय्या: ।
वासांसि रत्नानि परिच्छदान् रथा-
निष्टं च यज्ञैश्चरितं च पूर्तम् ॥ १५ ॥
अनुवाद
सर्वप्रथम मैंने दान प्राप्त करने वाले ब्राह्मणों को उत्तम आभूषणों से अलंकृत करके सम्मानित किया। वे अत्यंत आदरणीय ब्राह्मण जिनके परिवार कष्ट में थे, युवा थे और श्रेष्ठ चरित्र एवं गुणों से युक्त थे। वे सत्यनिष्ठ, तपस्या के लिए प्रख्यात, वैदिक शास्त्रों में पारंगत और आचरण में साधुवत थे। मैंने उन्हें गायें, भूमि, स्वर्ण, मकान, घोड़े, हाथी और दासी समेत विवाह के योग्य युवतियां, तिल, चांदी, सुंदर बिस्तर, वस्त्र, रत्न, गृहसज्जा-सामग्री और रथ दान में दिए। इसके अतिरिक्त मैंने वैदिक यज्ञ किए और अनेक पवित्र कल्याण कार्य संपन्न किए।