श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 63: बाणासुर और भगवान् कृष्ण का युद्ध  »  श्लोक 35-36
 
 
श्लोक  10.63.35-36 
 
 
नाभिर्नभोऽग्निर्मुखमम्बु रेतो
द्यौ: शीर्षमाशा: श्रुतिरङ्‍‍घ्रिरुर्वी ।
चन्द्रो मनो यस्य द‍ृगर्क आत्मा
अहं समुद्रो जठरं भुजेन्द्र: ॥ ३५ ॥
रोमाणि यस्यौषधयोऽम्बुवाहा:
केशा विरिञ्चो धिषणा विसर्ग: ।
प्रजापतिर्हृदयं यस्य धर्म:
स वै भवान् पुरुषो लोककल्प: ॥ ३६ ॥
 
अनुवाद
 
  आकाश आपकी नाभि है, अग्नि आपका मुख है, जल आपका वीर्य है और स्वर्ग आपका शिर है। दिशाएँ आपकी श्रवण शक्ति हैं, औषधीय पौधे आपके रोएँ हैं और जलधारक बादल आपके सिर के बाल हैं। पृथ्वी आपका पाद है, चंद्रमा आपका मन है और सूर्य आपकी दृष्टि है, जबकि मैं आपका अहंकार हूँ। समुद्र आपका उदर है, इंद्र आपकी भुजा है, ब्रह्मा आपकी बुद्धि हैं, प्रजापति आपकी जननेन्द्रिय है और धर्म आपका हृदय है। सच में आप ही आदि पुरुष हैं, लोकों के स्रष्टा हैं।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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