श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 50: कृष्ण द्वारा द्वारकापुरी की स्थापना  »  श्लोक 50-53
 
 
श्लोक  10.50.50-53 
 
 
द‍ृश्यते यत्र हि त्वाष्ट्रं विज्ञानं शिल्पनैपुणम् ।
रथ्याचत्वरवीथीभिर्यथावास्तु विनिर्मितम् ॥ ५० ॥
सुरद्रुमलतोद्यानविचित्रोपवनान्वितम् ।
हेमश‍ृङ्गैर्दिविस्पृग्भि: स्फटिकाट्टालगोपुरै: ॥ ५१ ॥
राजतारकुटै: कोष्ठैर्हेमकुम्भैरलङ्कृतै: ।
रत्नकूतैर्गृहैर्हेमैर्महामारकत स्थलै: ॥ ५२ ॥
वास्तोष्पतीनां च गृहैर्वल्ल‍भीभिश्च निर्मितम् ।
चातुर्वर्ण्यजनाकीर्णं यदुदेवगृहोल्ल‍सत् ॥ ५३ ॥
 
अनुवाद
 
  उस नगर के निर्माण में विश्वकर्मा के पूर्ण विज्ञान और शिल्पकला को देखा जा सकता था। उसमें चौड़े मार्ग, व्यावसायिक सड़कें और चौराहे थे, जो विस्तृत भूखंडों में स्थित थे। उसमें भव्य पार्क और स्वर्गलोक से लाये गये वृक्षों और लताओं से युक्त बगीचे भी थे। उसके द्वार के मीनारों के ऊपर सोने के शिखर थे, जो आकाश को छूते प्रतीत होते थे। उनकी अटारियां स्फटिक मणियों से बनी थीं। सोने से आच्छादित घरों के सामने का भाग सुनहरे घड़ों से सजाया गया था और उनकी छतें रत्नजटित थीं तथा फर्श में बहुमूल्य मरकत मणि जड़े थे। घरों के पास ही कोषागार, भंडार और आकर्षक घोड़ों के अस्तबल थे, जो चाँदी और पीतल के बने हुए थे। प्रत्येक आवास में एक चौकसी बुर्ज और घरेलू पूजा के लिए मंदिर था। यह नगर चारों वर्णों के लोगों से भरा हुआ था और यदुओं के स्वामी श्रीकृष्ण के महलों के कारण विशेष रूप से अलंकृत था।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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