श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 47: भ्रमर गीत  »  श्लोक 16
 
 
श्लोक  10.47.16 
 
 
विसृज शिरसि पादं वेद्‍म्यहं चाटुकारै-
रनुनयविदुषस्तेऽभ्येत्य दौत्यैर्मुकुन्दात् ।
स्वकृत इह विसृष्टापत्यपत्यन्यलोका
व्यसृजदकृतचेता: किं नु सन्धेयमस्मिन् ॥ १६ ॥
 
अनुवाद
 
  तुम अपने सिर को मेरे पैरों से दूर रखो। मैं जानती हूँ कि तुम क्या कर रहे हो। तुमने मुकुंद से चतुराई से कूटनीति सीखी है और अब उसकी तरफ से मीठी-मीठी बातें लेकर दूत बनकर आए हो। लेकिन उन्होंने उन बेचारियों को भी छोड़ दिया है जिन्होंने सिर्फ उनके लिए अपने बच्चों, पतियों और बाकी रिश्तों को छोड़ दिया था। वो तो बिल्कुल कृतघ्न हैं। तो अब मैं उनसे समझौता क्यों करूँ?
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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