श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 47: भ्रमर गीत  »  श्लोक 14
 
 
श्लोक  10.47.14 
 
 
किमिह बहु षडङ्‍‍घ्रे गायसि त्वं यदूना-
मधिपतिमगृहाणामग्रतो न: पुराणम् ।
विजयसखसखीनां गीयतां तत्प्रसङ्ग:
क्षपितकुचरुजस्ते कल्पयन्तीष्टमिष्टा: ॥ १४ ॥
 
अनुवाद
 
  अरे मधुमक्खी, तू यहाँ हमारे जैसे घर-बारविहीन लोगों के सामने यदुओं के स्वामी के बारे में इतना गाती क्यों है? ये कहानियाँ अब हमारे लिए पुरानी हो चुकी हैं। इससे अच्छा होगा कि तू अर्जुन के उस मित्र के बारे में जाकर उसकी नई सहेलियों के सामने गाए जिसने उनकी छाती की दाहक इच्छा शांत की है। वे नारियाँ तुझे अवश्य ही मनचाहा दान-पुण्य देंगी।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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