श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 47: भ्रमर गीत  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  10.47.13 
 
 
सकृदधरसुधां स्वां मोहिनीं पाययित्वा
सुमनस इव सद्यस्तत्यजेऽस्मान् भवाद‍ृक् ।
परिचरति कथं तत्पादपद्मं नु पद्मा
ह्यपि बत हृतचेता ह्युत्तम:श्लोकजल्पै: ॥ १३ ॥
 
अनुवाद
 
  अपने होठों का मोहक अमृत पिलाकर एक बार कृष्ण ने हमें भी छोड़ दिया, जैसे तुमने उस फूल को छोड़ दिया। तो देवी पद्मा स्वेच्छा से उनके चरणकमलों की सेवा क्यों करती हैं? हाय! इसका उत्तर यही हो सकता है कि उनके छलपूर्ण शब्दों ने उनका चित्त चुरा लिया है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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