वासितार्थेऽभियुध्यद्भिर्नादितं शुश्मिभिर्वृषै: ।
धावन्तीभिश्च वास्राभिरुधोभारै: स्ववत्सकान् ॥ ९ ॥
इतस्ततो विलङ्घद्भिर्गोवत्सैर्मण्डितं सितै: ।
गोदोहशब्दाभिरवं वेणूनां नि:स्वनेन च ॥ १० ॥
गायन्तीभिश्च कर्माणि शुभानि बलकृष्णयो: ।
स्वलङ्कृताभिर्गोपीभिर्गोपैश्च सुविराजितम् ॥ ११ ॥
अग्न्यर्कातिथिगोविप्रपितृदेवार्चनान्वितै: ।
धूपदीपैश्च माल्यैश्च गोपावासैर्मनोरमम् ॥ १२ ॥
सर्वत: पुष्पितवनं द्विजालिकुलनादितम् ।
हंसकारण्डवाकीर्णै: पद्मषण्डैश्च मण्डितम् ॥ १३ ॥
अनुवाद
गोकुल चारों ओर से ऋतुमती गौओं के लिए लड़ते साँड़ों की ध्वनि, अपने बछड़ों का पीछा कर रही गौओं की रम्भाती आवाज, दुहने की और इधर-उधर कूद-फाँद रहे श्वेत बछड़ों के शोर, वंशी बजाने की गूँज और उन गोपों तथा गोपिनों द्वारा गाए जा रहे कृष्ण और बलराम के शुभ कार्यों के गुणगान से गुंजायमान था। ये गोप और गोपिकाएँ अपने घरों को अद्भुत तरीके से सजाए हुए थे, जिससे गाँव बेहद सुंदर लग रहा था। गोकुल में ग्वालों के घर यज्ञ-अग्नि, सूर्य, अचानक आए अतिथियों, गौओं, ब्राह्मणों, पितरों और देवताओं की पूजा के लिए प्रचुर सामग्रियों से भरे हुए थे। चारों ओर फूलों से लदे जंगल फैले हुए थे, जो पक्षियों और मधुमक्खियों के झुंडों से गूँजते थे और हंसों, कारण्डव और कमलों से भरे सरोवरों से सुशोभित थे।