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श्लोक 27
श्लोक
10.46.27
श्रीशुक उवाच
इति संस्मृत्य संस्मृत्य नन्द: कृष्णानुरक्तधी: ।
अत्युत्कण्ठोऽभवत्तूष्णीं प्रेमप्रसरविह्वल: ॥ २७ ॥
अनुवाद
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शुकदेव गोस्वामी ने कहा : इस तरह पुनः पुनः कृष्ण के बारे में दृढ़तापूर्वक स्मरण करते हुए, भगवान के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित मन वाले नंद महाराज को बहुत चिंता हुई और वे अपने प्रेम की शक्ति से अभिभूत होकर मौन हो गए।
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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