श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 44: कंस वध  »  श्लोक 14
 
 
श्लोक  10.44.14 
 
 
गोप्यस्तप: किमचरन् यदमुष्य रूपंलावण्यसारमसमोर्ध्वमनन्यसिद्धम् ।
द‍ृग्भि: पिबन्त्यनुसवाभिनवं दुराप-मेकान्तधाम यशस: श्रिय ऐश्वरस्य ॥ १४ ॥
 
अनुवाद
 
  अंत में, गोपियों ने कौन से तप किए होंगे? वे निरंतर अपनी आँखों से कृष्ण के रूप का अमृत-पान करती हैं, जो सुंदरता का सार है और जिसकी न तो तुलना की जा सकती है और न ही उससे बढ़कर कुछ और है। वही सौंदर्य, प्रसिद्धि और धन-संपदा का एकमात्र धाम है। यह स्वतः पूर्ण, सदैव नया और अत्यंत दुर्लभ है।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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