श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 42: यज्ञ के धनुष का टूटना  »  श्लोक 24
 
 
श्लोक  10.42.24 
 
 
गोप्यो मुकुन्दविगमे विरहातुरा याआशासताशिष ऋता मधुपुर्यभूवन् ।
सम्पश्यतां पुरुषभूषणगात्रलक्ष्मींहित्वेतरान् नु भजतश्चकमेऽयनं श्री: ॥ २४ ॥
 
अनुवाद
 
  वृंदावन से मुकुंद (कृष्ण) के विदा होते समय गोपियों ने भविष्यवाणी की थी कि मथुरावासी कई वरों का भोग करेंगे और अब गोपियों की भविष्यवाणी सच हो रही थी क्योंकि मथुरा के वासी पुरुष-रत्न कृष्ण के सौंदर्य को निहार रहे थे। निश्चय ही लक्ष्मीजी उस सौंदर्य का आश्रय इतना चाहती थी कि उन्होंने कई अन्य लोगों का परित्याग कर दिया, यद्यपि वे उनकी पूजा करते थे।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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