श्रीगोप्य ऊचु:
अहो विधातस्तव न क्वचिद् दया
संयोज्य मैत्र्या प्रणयेन देहिन: ।
तांश्चाकृतार्थान् वियुनङ्क्ष्यपार्थकं
विक्रीडितं तेऽर्भकचेष्टितं यथा ॥ १९ ॥
अनुवाद
गोपियों ने कहा: अरे नारायण, आप तो बस खेल ही खेलते रहते हैं, आज तक आपका कोई अंत नहीं हुआ है! प्रेम के फेर में पड़े इन प्राणियों को बरबस से अपना इकट्ठा करवाते हैं और मैं उनकी इच्छाएं पूरी हों, उससे पहले ही मौत दे देते हो। आपका यह खेल तो ऐसा लगता है जैसे कोई बच्चे खेलते हैं।