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श्लोक 10.38.43  |
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इत्थं सूनृतया वाचा नन्देन सुसभाजित: ।
अक्रूर: परिपृष्टेन जहावध्वपरिश्रमम् ॥ ४३ ॥ |
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अनुवाद |
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नन्द महाराज के पूछताछ के इन सत्य और मीठे शब्दों से सम्मानित होकर अक्रूर अपनी यात्रा की थकान भूल गए। |
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इस प्रकार श्रीमद् भागवतम के स्कन्ध दस के अंतर्गत अड़तालीसवाँ अध्याय समाप्त होता है । |
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