श्रीमद् भागवतम  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 32: पुन: मिलाप  »  श्लोक 17
 
 
श्लोक  10.32.17 
 
 
श्रीभगवानुवाच
मिथो भजन्ति ये सख्य: स्वार्थैकान्तोद्यमा हि ते ।
न तत्र सौहृदं धर्म: स्वार्थार्थं तद्धि नान्यथा ॥ १७ ॥
 
अनुवाद
 
  भगवान ने कहा: जो तथाकथित मित्र आपस में अपना फायदा देखकर प्रेम जताते हैं, वे वास्तव में स्वार्थी होते हैं। न उनकी मित्रता सच्ची होती है और न ही वे धर्म के असली नियमों का पालन करते हैं। अगर उन्हें स्वयं को कोई फायदा न मिले तो वे प्यार नहीं कर सकते।
 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥
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