श्रवणाद् दर्शनाद्ध्यानान्मयि भावोऽनुकीर्तनात् ।
न तथा सन्निकर्षेण प्रतियात ततो गृहान् ॥ २७ ॥
अनुवाद
मेरे प्रति दिव्य प्रेम मेरे विषय में सुनने, मेरे अर्चाविग्रह रूप का दर्शन करने, मेरा ध्यान करने तथा मेरी महिमा का श्रद्धापूर्वक कीर्तन करने की भक्तिमयी विधियों से उत्पन्न होता है। यह दिव्य प्रेम केवल शारीरिक सान्निध्य से ही प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतः तुम सब अपने-अपने घरों को लौट जाओ।